मुंगेली ( अतुल श्रीवास्तव ) । रात का वक्त है…. मुंगेली के पड़ावपारा चौक पर सैकड़ों मील चलकर आए मज़दूरों का परिवार अपना पड़ाव डालता है….। शहर के समाजसेवी उनके खाने का इंतज़ाम करते हैं….। जैसे ही खिचड़ी – पुलाव सामने आता है… सभी के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ जाती हैं और मासूम बच्चों के बीच होड़ सी लग ज़ाती है….। उन्हे देखकर साफ समझा जा सकता है कि भूख क्या चीज होती है…..। भर पेट खाना खाकर मज़दूर परिवार फ़िंर अपनी मंज़िल की ओर रवाना हो ज़ाता हैं….। लेकिन छोड़ ज़ाता है कई सवाल….। जिसमें सबसे अहम् सवाल तो यही है कि क्या.इस विश्व महामारी में कुछ ऐसा हो रहा है कि मजदूर इतनी दूर पैदल चल के घर आने को मजबूर हो गया…..। वही बड़े घर के बच्चे जो लाखो खर्च कर के बाहर पढ़ने गए थे , उसे तो AC बस में लाया गया और रोजी मजदूरी करने गए परिवार के बच्चे पैदल ही सड़क नापने को मज़बूर हैं….। आख़िर बचपन में फर्क क्या है……..?
यह नज़ारा करीब रोज़ाना ही देख़ने को मिल रहा है। कंधे पर बैग और आँखों में बेबसी लिए हुए मज़दूर परिवारों को देखकर किसी का भी दिल रो पड़ता है। और सोचने को मज़बूर हो ज़ाता है कि आख़िर उनकी यह हालत क्यों हैं और इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है। बेबस मजदूर और साथ मे छोटे छोटे बच्चे बस यही उम्मीद लेके पैदल चल रहे है कि बस किसी तरह अपने घर पहुचे जाए । उनके चेहरे पर यह सवाल साफ़ पढ़ा ज़ा सकता है कि जहां भी मजदूरी करने गए है मजदूर क्या वहा की स्थानीय सरकार उनकी मदद नही कर सकती थी….? क्या राशन नही मिल रहा। मजदूर क्यो अपने घर सैकड़ो किमी की दूरी पैदल चल के आ रहे । न रास्ते मे खाने का कुछ मिलने का उम्मीद न पानी का…. न रुकने की कोई व्यवस्था और ऊपर से बेमौसम बारिश का कहर …….। आखिर क्यों चले है अपने भारी सामान लेके….? वो भी नन्हे बच्चो को लेकर पैदल …..। कई लोग सैकड़ो किमी तय किये होंगे । ये मजदूर कई जिले से आगे बढ़े होंगे कुछ तो बेबसी रही होगी इनकी जो ये सब छोड़ कर अपने घर आने को मजबूर हुए होंगे ।
पड़ावपारा से वापस अपने घर की ओऱ निकले मज़दूर एलईडी बल्ब की दुधिया रोशनी मे सड़क के एक चलते हुए धीरे – धीरे ओझल होते गए । सबसे आख़िर में पिता का हाथ थामे नन्हें पाँवों से आगे बढ़ती हुई बच्ची काफी देर तक नज़रों से ओझल नहीं हो सकी….। काफ़ी दूर तक उसकी झलक बरकरार रही औऱ यह सवाल भी अभी तक पीछा नहीं छोड़ रहा है कि एक तरफ़ समाज़ का वह तबका है , जिनके बच्चे बड़े- बड़े कोचिंग संस्थानों में पढ़ते हैं और लॉकडाउन के दौरान उन्हे वापस लाने के लिए एसी बसें चलाई जाती हैं और मज़दूरों के बच्चों को खुद अपने पाँव – पाँव चलकर सफ़र तय करना पड़ता है। पूरी व्यवस्था के चेहरे का नक़ाब यहीं पर उतर जाता है और फ़र्क भी साफ़ महसूस होता है।
एक सवाल यह भी उठ रहा है कि जब वोट की जरूरत पड़ती है तो नेता इन्ही मजदूरों को पैसे दे कर वोट करने को बुलाते है । कहा है आज वो नेता या मंत्री …….कुर्सी पाते ही बड़े वीआईपी लोगो और पार्टी को चंदा देने वाली कम्पनियो को लाभ पहुंचाने का हर एक इंतज़ाम हो रहा है। उस मजदूर के बच्चे की मासूमियत देखो साहब ……जिसको देख के आप कोरोना का खतरा बताते हो। बहुत राशन बाट लिया। अर्थव्यवस्था भी दिखा दिए । अब तो इनके बारे में थोड़ा सोचने का वक़्त निकालना चाहिए ।
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