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मीडियोक्रिटी और करुणा

डॉ. विक्रम सिंघल

मीडियोक्रिटी को एक सिमटी, सिकुड़ी हुई चेतना के रूप में देखना, जो अपने वातावरण से, सच से डरा हुआ है और किसी अनजान सत्ता से संवाद न कर, अपने ऊपर अस्मिता की चादर ओढ़ ले; तो इस समझ से बहुत कुछ निगमित होता है. ये अपनी चादर या दायरे के बाहर की दुनिया के अस्तित्व को तो स्वीकार करता है, मगर उसे गैर जरूरी या अपने लिए खतरनाक मानता है. वह उससे व्यापार तो कर सकता है पर संवाद नहीं कर सकता.

चादर या परदे के पीछे से अगर उसे अपनी जैसी कोई और चादर नज़र आ जाये तो उसे थोड़ी राहत महसूस होती है. उसे लगता है कि वह उतना खतरनाक नहीं होगा, क्योंकि विस्तार यदि असीमित हो तो वह पृथकता को ख़त्म कर देता है.

इसीलिए एकेश्वरवाद में केवल ईश्वर ही एक मात्र असीमित इकाई होती है. यदि एक से अधिक असीमित सत्ताएं हों तो वो एक दूसरे को सीमित कर देंगी. मगर ऐसे में सीमित सत्ताएं, जो सर्वव्यापी होने का दवा नहीं करतीं और अपना दायरा तय कर लेती हैं, वो अपने दायरे या सीमा की रक्षा को लेकर असुरक्षित हो जाती हैं. मतलब कि वो प्रतिस्पर्धा के होने को स्वीकार तो करती हैं पर उसमें भाग नहीं लेना चाहतीं.

मीडियोक्रिटी को चुनौती पसंद नहीं है. इसे बहुलतावाद से जोड़कर नहीं देखना चाइए. बहुलतावाद अनेक अस्मिताओं के सह अस्तित्व की बात तो करता है,पर उनमें परस्पर संवाद को नहीं नकारता. वह चुनौती को अस्वीकार नहीं करता, लेकिन यह स्वीकार करता है कि पूर्ण सत्य किसी एक के पास नहीं है और सत्य के खोज का कोई एक तरीक़ा नहीं है. इसीलिए सभी को सत्य की खोज का सामान अधिकार प्राप्त है.

इसके ठीक उलट मीडियोक्रिटी, संवाद को नकारती है और सत्य के खोज से भी डरती है. अस्मिताओं के सीमित सत्य को जीवन के लिए पर्याप्त बता कर उनके भीतर ही एक सीमित जीवन जीना चाहती है. ऐसे में एक सवाल बार बार उठता है की क्या मीडियोक्रिटी और करुणा के बीच कोई भी साझा अवयव है या हो सकता है, या फिर ये दोनों एक दूसरे के सर्वथा विपरित हैं?

करुणा मानव चेतना के विस्तार का सार और आधार है. यह चेतना का दूसरी चेतना से पहचान, ऐसे संवाद और फिर उनके समुच्चय का साधन है. करुणा चेतना को इन्द्रियों के बंधन से मुक्त कर देती है और वह इन्द्रियोत्तर संवेदनाओं को ग्रहण करने में सक्षम हो जाती है.

करुणा, सत्य और यथार्थ को प्रत्यक्ष और अनुमान से मुक्त कर के उनका चेतना से सीधा साक्षात्कार कराती है. वह अब सिर्फ सत्य का संज्ञान भर नहीं लेती, बल्कि उसे अनुभव करती है और अपने भीतर समाहित करती है. ऐसे में इसका मीडियोक्रिटी से कोई सम्बन्ध हो ही नहीं सकता.

जहाँ करुणा है, वहां मीडियोक्रिटी नहीं हो सकती और जहाँ मीडियोक्रिटी है, वहां करुणा संभव नहीं है. यहाँ यह दोहराना जरुरी है कि मीडियोक्रिटी मेधा या दक्षता की कमी नहीं बल्कि उसे नकारने की स्थिति है, जो उसे गैरजरूरी, हानिकारक और असंभव मानती है. इसीलिए मीडियोक्रिटी, ज्ञान को संदेह की दृष्टि से देखती है, उस पर खीज निकालती है और उसे ख़ारिज करने की कोशिश करती है.

दूसरी ओर करुणा को ज्ञान और दक्षता आकर्षित करती है. वह उसके विस्तार के क्षमता को बढाती है. वह उसे अपने आस पास के सत्य में भेद और समानता दोनों को पहचानने में मदद करता है, जिससे वह भेद को मिटाने और समानता को स्थापित करने का प्रयास कर सके. वह अपने को सीमित पाने पर दूसरे के ज्ञान का भी सम्मान करती है. क्योंकि अंततः विस्तार किसी का भी हो और कहीं से भी हो, वह उस तक पहुँच कर उसे अपना हिस्सा बना लेगा.

आज जब मणिपुर से आये दृश्यों ने मीडिया की बंद आँखों को भी चौंधिया दिया, तो इससे कोई नया आक्रोश या संवेदना का निर्माण नहीं हुआ, वह तो उस सच का संज्ञान भी नहीं ले सकती, उसे अनुभव करना तो असंभव है.

करुणा का विस्तार निर्बाध होता है, वह छलांग नहीं लगाता कि दिल्ली से उछल कर सीधे मणिपुर पहुँच जाये. जब वह दिल्ली से मणिपुर की और निकलेगी तो रास्ते में हाथरस, बदायूं और मुजफ्फरपुर भी होते हुए जाएगी. ‘भारत जोड़ो यात्रा’ में इसकी झलक दिखाई दी थी. केरल की वो वृद्ध महिला जो राहुल गाँधी से लिपट कर रो रही, छोड़ने को तैयार नहीं थी, से लेकर कश्मीर की वो महिलाएं जिन्होंने सहज ही उससे अपने सबसे कटु सच, अपने साथ हुए बलात्कार तक का सच साझा कर सकती थीं, वो जो न खुद बोल सकती थी न ही राहुल को भी बोलने देना चाहती थीं. वो सच भी पहली मुलाकात में ही बता सकीं. करुणा में संवाद निर्बाध होता है, उसे शायद भाषा का माध्यम भी नहीं चाहिए. दिल्ली पुलिस इसी करुणा से अपिरिचित, उनसे उनका परिचय पूछने पहुँच गयी थी.

तो मीडियोक्रिटी किसी को दिल्ली से मणिपुर पहुँचने भी नहीं देती, हाँ वह छलांग लगा कर वहां उतर सकती है, क्योंकि वहां भी अस्मिता की चादर ओढ़े एक मीडियोक्रिटी बैठी हुई है. वह व्यापार के लिए तत्तपर है. 60 में 40 विधायक और 2 में से कम से कम एक संसद, उसका भंडार है उसके पास, और इधर सत्ता का संरक्षण है. एक आशंकित मीडियोक्रिटी को और क्या चाहिए. सौदा परस्पर फायदे का है.

फिर यह खबर और विज्ञापन दूर दूर तक पहुँच गया कि देश में जहाँ भी, जो भी मीडियोक्रिटी का उत्सव मनाना चाहते हैं, वो किसी न किसी अस्मिता की चादर ओढ़ इस बाजार में पहुँच जाएँ. एक बहुत बड़ा ग्राहक आया है इस बाजार में. उसके पास धन, शक्ति, सत्ता किसी चीज़ की कमी नहीं है, वो सबका स्टॉकखरीद लेगा. उसके रहते किसी को भी अपना माल वापस नहीं ले जाना पड़ेगा.

जरा कल्पना कीजिए, इस बाजार के दृश्य की. धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, सम्प्रदाय और यहाँ तक की राष्ट्रवाद भी, जैसा चाहो वैसा दायरा बनाओ, और अपनी कीमत तय करो. जितनी बड़ी संख्या, और उससे फलित होते विधायक और सांसदों की संख्या होगी… बेचने वाले अनेक हैं पर खरीदार सिर्फ एक. उसने इसी दिन के लिए दशकों से पूँजी जोड़ा था कि एक दिन इस बाजार का आयोजन कर सके. पूरे देश की मीडियोक्रिटी को एक साथ, एक बाजार में ला सके. उन्हें मेधा, प्रज्ञा, या दक्षता से डरने की कोई जरूरत नहीं होगी, वह तो निष्कासित हो चुकी है. आखिर मीडियोक्रिटी का सही मूल्यांकन तो अब हुआ है.

लेकिन इसका प्रभाव बस इतना ही नहीं है. इसने पूरे देश के आत्मिक बल को क्षीण कर दिया है. देश की पुरातन, साभ्यतिक चेतना जब अपनी खोई हुई विस्तार को हासिल करने की कोशिश करती है, तो वह इन बंद दीवारों से टकरा कर रह जाती है. विश्वास और साहस की कमी की वजह से वह तरल से ठोस हो गयी है, अब वह पानी की तरह फैल नहीं सकती.

महान जर्मन दार्शनिक कहते थे कि तर्क की दो कोटियां होती हैं, सैद्धांतिक और प्रयोगात्मक. व्यव्हार प्रयोगात्मक तर्क के अधीन है. सही के चुनाव के लिए उसका संभव होना भी आवश्यक है. मतलब यह जो आपके बस में नहीं, उसके लिए आपकी कोई नैतिक बाध्यता नहीं है.

मतलब ये कि अगर कोई समाज मीडियोक्रिटी को स्वीकार कर ले और अपनी क्षमता को विकसित करने का कोई लक्ष्य या भार न हो, वह खुद को करुणा से मुक्त कर सकती है. जरा नैतिक बोध की बात कीजिये जवाब मिलेगा- भाई कलयुग है, महान बनने की कोई ज़रूरत नहीं. या फिर जवाब होगा- क्या हमेशा सही होने का ठेका हमने ही ले रखा है. सोशल मीडिया ने तो इसे और भी आसान बना दिया है, लज्जा नामक अवरोध समाप्त हो चुका है.

मीडियोक्रिटी बेचना आसान है, करुणा का बहिष्कार मुश्किल. लेकिन पहले से दूसरा अपने आप सध जाता है. तो एक तरफ है मीडियोक्रिटी, उससे निगमित होती है भय और नृशंसता. दूसरी तरफ है मेधा, दक्षता और उनसे निगमित होता साहस और करुणा.

किसी भी नेतृत्व के लिए चुनाव कठिन हैं कि जनता को किस चीज़ का प्रशिक्षण देना आसान होगा, या यूँ कहें कि कम मुश्किल होगा- ज्ञान के मूल्य का या करुणा का? करुणा से मीडियोक्रिटी का मुक़ाबला किया जाये या ज्ञान से नृशंसता का? बापू ने करुणा से मीडियोक्रिटी को हराने की कोशिश की. अपरिग्रह से उत्पादन का आव्हान किया.

आज बहुत से बुद्धिजीवी ज्ञान और तर्क से नृशंसता को हराना चाहते हैं. लोगों तक सच और तर्क पहुँचाना चाहते हैं, मगर असर वो नहीं है. राहुल के लिए चुनाव और भी कठिन है. ज्ञान से साक्षात्कार के बाद करुणा का अभ्यास, उनकी यह राह कठिन है.

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