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Bilaspur सीट में क्यों दांव पर लगी है Rahul Gandhi की प्रतिष्ठा… ? 

छत्तीसगढ़ में Bilaspur सीट का चुनाव दिलचस्प है। दरअसल इस सीट पर कांग्रेस ने Rahul Gandhi की पसंद से अपना उम्मीदवार बनाया है । लिहाज़ा इस सीट पर राहुल गांधी की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी हुई है। भिलाई से दो बार विधायक चुने गए देवेन्द्र यादव को बिलासपुर सीट से उतारकर कांग्रेस ने बड़ा दांव तो खेला है।

लेकिन 1996 से लगातार इस सीट पर हार रही कांग्रेस के अंदर ऐसा कुछ नज़र नहीं आ रहा है, जिसे देखकर लगे कि इस इलाके में पार्टी के लोग अपने सबसे बड़े नेता की प्रतिष्ठा बचाने में दिलचस्पी ले रहे हैं। अब तक के चुनाव अभियान को देखकर लगता है कि कांग्रेस उम्मीदवार के साथ नत्थी बाहरी का ठप्पा भी भारी पड़ सकता है ।

उधर सोशल इंजीनियरिंग की तरफ कोई नया समीकरण बनाने में आपसी खींचतान और बिख़राव की वज़ह से बाधा दौड़ जैसा नज़ारा दिखाई दे रहा है।

कांग्रेस ने देवेन्द्र यादव को बिलासपुर सीट से मैदान में उतारकर यह मैसेज़ देने की कोशिश की थी कि वे “बड़े नेता” है। पहले एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस में काम कर चुके हैं। इस नाते उनका पूरे छत्तीसगढ़ के साथ ही बिलासपुर से भी नाता रहा है।

देवेन्द्र यादव दो बार भिलाई विधानसभा सीट से भाजपा के प्रेम प्रकाश पाण्डेय जैसे दिग्गज़ को हरा चुके हैं और पचीस साल की उमर में भिलाई के महापौर का चुनाव जीत चुके हैं। लेकिन चुनाव अभियान के शुरूआती दौर में कांग्रेस के लोगों ने ही अपनी पार्टी के इस “गुब्बारे” की हवा निकाल दी थी।

जब पहले तो दबी ज़ुब़ान और फिर ख़ुले तौर पर पार्टी के उम्मीदवार का विरोध शुरू हो गया । इस सिलसिले में पार्टी दफ़्तर के सामने बोदरी के कांग्रेस नेता जगदीश कौशिक के अनशन को मीडिया में ख़ूब जगह मिली ।

एक से अधिक बार कांग्रेस की टिकट पर पार्षद चुने जाते रहे विष्णु यादव ने भी देवेन्द्र यादव को लेकर मीडिया में बहुत कुछ कहा। इस बीच पूर्व महापौर वाणी राव, पूर्व विधायक चंद्र प्रकाश बाजपेयी और संतोष कौशिक ने कांग्रेस छोड़कर बीजेपी का दामन थाम लिया तो इसे भी पार्टी के अंदर फैले असंतोष से जोड़कर देखा गया । कुल मिलाकर दावत की शुरूआत में इतना रायता फैल गया कि इसे समेटने में ही पूरी ताक़त लग गई ।

लोग याद करते हैं कि कांग्रेस बिलासपुर सीट 1996 से लगातार हारती आ रही है।और हर बार कांग्रेस के उम्मीदवार बदलते रहे हैं। तान्या अनुरागी, रामेश्वर कोसरिया, डॉ. बसंत पहारे, डॉ. रेणु जोगी, करुणा शुक्ला,अटल श्रीवास्तव – जैसे चेहरे हर बार बदलते रहे हैं । लेकिन किसी उम्मीदवार को इस तरह के विरोध का सामना कभी नहीं करना पड़ा था। ज़ाहिर सी बात है कि चुनावी माहौल में इसका असर लाज़िमी है।

लोग यह कहते मिल जाएंगे कि जब पार्टी के लोग ही अपने उम्मीदवार को बाहरी कहने से नहीं हिचक रहे हैं तो फ़िर आम लोगों को यह मान लेने में क्यों दिक़्कत होगी ? हालांकि कांग्रेस के अंदर एक तबक़ा यह भी मान रहा था कि जिस तरह 2018 के विधानसभा चुनाव में बिलासपुर विधानसभा सीट से शैलेश पाण्डेय को पहले पैराशूट उम्मीदवार के रूप में देखा गया था ।

लेकिन बाद में उन्होने बीजेपी के अमर अग्रवाल जैसे कद्दावर नेता को शिकस्त दी थी, यह इतिहास देवेन्द्र यादव दोहराएंगे। लेकिन अगर 2018 की तरह “पैराशूट” ( आकाश से ज़मीन की ओर ) को “रॉकेट” ( ज़मीन से आकाश की ओर) में बदलने के लिए कोई स्क्रिप्ट लिखी जा रही है तो वह अब तक सामने नहीं आई है।

ख़बरों में यह बात शुरू से ही आती रही है कि देवेन्द्र यादव ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी की न्याय यात्रा में न सिर्फ़ हिस्सा लिया , अलबत्ता उन्होने काफ़ी नज़दीकी भी बना ली है। ज़ाहिर सी बात है कि इस वज़ह से ही उन्हे भिलाई से बिलासपुर लाकर चुनाव मैदान में उतारा गया ।लोगों ने इसके पीछे सोशल इंजीनियरिंग के एक गणित की ओर भी इशारा समझा था कि बिलासपुर सीट में पिछले कुछ चुनाव से बीजेपी की ओर से ओबीसी तबक़े से एक समाज विशेष का उम्मीदवार मैदान में उतारा जाता रहा है।

ऐसे में कांग्रेस ने ओबीसी तबके के दूसरे समाजों की गोलबंदी की उम्मीद में यादव समाज के उम्मीदवार को सामने लाया है। लेकिन बिलासपुर लोकसभा क्षेत्र में संगठन के बिखराव के बीच यह सरल गणित भी ज़मीनी स्तर पर उतना सरल नज़र नहीं आ रहा है। लोग यह सवाल भी कर लेते हैं कि क्या इस इलाक़े में पार्टी के लोग चुपचाप यह मान लेंगे कि सौ किलोमीटर दूर से आकर कोई नेता उनकी अगुवाई करे।

यहां पार्टी का नेतृत्व भले ही कमज़ोर दिखाई देता हो। लेकिन दूर -दराज़ से आकर कोई ऐसा नेतृत्व उभरे , इसे स्वीकार करने के लिए भी बड़ा दिल चाहिए।ऐसे में चुनाव अभियान में दिख रही हलचल के बीच लोग रस्मअदायगी की झलक भी देखते जा रहे हैं।चर्चाओं में संगठन के ऐसे ओहदेदार भी हैं, जो सोशल मीडिया में पोस्ट साझा कर अपनी ज़िम्मेदारी पूरी समझते हैं। 

ऐसी सूरत में राहुल गांधी की पसंद से नौजवान नया चेहरा पेश करने का यह नुस्खा कितना कारगर होगा यह जानने के लिए उस दिन का इंतज़ार करना ही बेहतर है, जब वोट गिने जाएंगे। फ़िलहाल बिलासपुर सीट के दिलचस्प मुक़ाबले में यह देखना दिलचस्प है कि राहुल गांधी की पसंद के उम्मीदवार को इस इलाक़े में आम लोगों के साथ ही पार्टी वालों ने कितना पसंद किया… ?

उम्मीदवार के नाम के साथ शुरूआत से जोड़ दी गई पहचान कितनी मिट सकी है …? और क्या ओबीसी तबके में कोई गोलबंदी हो रही है….? राहुल गांधी की प्रतिष्ठा से जुड़ी बिलासपुर सीट में इन सवालों का जवाब चुनावी पंडित भी तलाश रहे हैं।

https://www.cgwall.com/why-is-rahul-gandhis-reputation-at-stake-in-bilaspur-loksabha/