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छत्तीसगढ़ में गायब हो गई धान की खुशबू

रायपुर | संवाददाता: छत्तीसगढ़ में धान के समर्थन मूल्य की अधिक क़ीमत ने किसानों को तो ज़रुर समृद्ध किया है लेकिन धान के कटोरे से, धान की विविधता लगभग समाप्त होती चली गई है.

किसानों का जोर अधिक से अधिक उपज पाना है. इसके कारण ऐसी किस्में ही राज्य में उगाई जा रही हैं, जिसमें अधिक से अधिक खाद डाल कर, अधिक से अधिक उपज ली जा सके. यही कारण है कि खुशबूदार या गुणवत्ता वाली धान की किस्में खेतों से गायब होती जा रही हैं.

छत्तीसगढ़ में समर्थन मूल्य पर धान ख़रीदी के कारण परंपरागत बीजों के प्रति लोगों में उदासीनता बढ़ती गई और अब इन परंपरागत बीजों की कोई पूछ-परख नहीं है.

छत्तीसगढ़ के सरगुजा के इलाके में जीराफूल, छतरी, श्यामजीरा, रायगढ़ के इलाके में जवाफूल, जीराधान, नगरी के इलाके में चिन्नौर, माई दुबराज, दुबराज, कारीगिलास, बस्तर के इलाके में आत्माशीतल, कस्तूरी, अंतर्वेद, कपूरसार, बादशाह भोग, कालीकमोद, गंगाबारु, जैसी कई प्रजातियां थीं.

मैदानी इलाकों में कुबरीमोहर, तिल कस्तूरी, बिसनी, इलायची, तुलसीमंजरी, तुलसीप्रसाद, जवाफूल, जयगूंडी, गोपालभोग, समुद्रफेन, लोहंडी, केरागुल उगाई जाती थी. लेकिन समय के साथ-साथ ये किस्में खत्म होती चली गईं.

23,250 किस्में

रायपुर के इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में धान की 23,250 से अधिक प्रजातियां संग्रहित हैं. रायपुर के इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय के संग्रहण केंद्र में इन धान की प्रजातियों के जर्मप्लाज्म उपलब्ध हैं.

लेकिन अब इनमें से अधिकांश प्रजातियां महज प्रयोगशालाओं में सिमट कर रह गई हैं. चावल की अलग-अलग किस्में, उनकी गुणवत्ता और खुशबू बीते दिनों की बात हो गई है.

यह तब है, जब धान की खेती का रकबा साल दर साल बढ़ता जा रहा है. वर्ष 2018-19 में धान का रकबा 25 लाख 60 हजार हेक्टेयर था, जो 2021-22 में बढ़ कर 29 लाख 84 हजार हेक्टेयर हो गया.

रायपुर के इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में प्रक्षेत्र पर संरक्षण परियोजना के अंतर्गत धान की 705 अलग-अलग प्रजातियां संकलित की गईं. ये प्रजातियां कृषि विश्वविद्यालय के पास मौजूद जमीन पर उगाई जाती हैं.

वहीं राष्ट्रीय कृषि प्रौद्योगिकी परियोजना के अंतर्गत धान की 1052 प्रजातियों का संकलन किया गया. इसी तरह देशी धान से चयनित 938 प्रजातियां, 849 प्रजनन प्रजातियां, 210 जंगली धान की प्रजातियां और उच्चहन, विशिष्ट व अन्य 955 प्रजातियां विश्वविद्यालय में संकलित हैं.

लेकिन इनमें धान का सबसे बड़ा संग्रह उन 20,298 देसी प्रजातियों का है, जो कभी छत्तीसगढ़ में उगाई जाती थीं. विश्वविद्यालय में संरक्षित देशी धान जनन द्रव्य यानी जर्मप्लाज्म समूह की बात करें तो यहां 125 दिनों में पकने वाली 5,557 प्रजातियां हैं.

126 से 140 दिनों में पक कर तैयार होने वाली धान की 5,069 प्रजातियां हैं. जबकि 7,915 प्रजातियां ऐसी हैं, जो 140 दिनों में तैयार होती हैं.

तालाब में उगती है ये धान की किस्म

राज्य के अलग-अलग किसानों से बात करें तो छत्तीसगढ़ में पाई जाने वाली धान की क़िस्में चकित कर देती हैं. यहां 11.4 मिलीमीटर की लंबाई वाली धान की सुगंधमति प्रजाति भी मिलती है तो 5.2 मिलीमीटर की लंबाई वाली गंगाबारु की किस्म भी पाई जाती है.

धान की रघुनाथ, रामदीन, छीनमोहरी, कालाजीरा, देवर्धन जैसी कई प्रजातियां सूखे को भी बर्दाश्त कर लेती हैं तो पूस बंगला जैसी कुछ प्रजातियां ऐसी हैं, जिन्हें तालाब में बोया जाता है और जिसे डोंगी में बैठ कर काटना पड़ता है.

नारबेल और बइदराज जैसी प्रजातियां भी फसल कटने तक पानी में डूबी रहती हैं.

राज्य के अलग-अलग इलाकों में राम-लक्ष्मण, लव-कुश और डोकरा-डोकरी के नाम से चर्चित धान की एक प्रजाति इस मायने में अनूठी है कि इसके एक बीज में चावल के दो दाने पाये जाते हैं. पिंउरा मुंदरिया के दाने हल्के पीले होते हैं तो रतन भंवरा, हरहर पदुम, जल कोक जैसी प्रजातियों के दाने लाल होते हैं. बरही, ठुमकी, भुसुवाकोरा, मरहन, गुड़मा, तुलसी घाटी, करियाझिनी समेत कई प्रजातियां ऐसी हैं, जिसके दाने काले होते हैं.

चावल की अलग-अलग किस्मों में अलग-अलग औषधीय गुण भी हैं. राज्य के किसान तो ऐसे बहुत स्वास्थ्य संबंधित फायदे गिनाते ही हैं पर सरकारी दस्तावेज में भी इसका जिक्र है.

राज्य में धान को लेकर होने वाले शोध से धान की कई प्रजातियों के विशेष गुण सामने आये, वहीं नई-नई किस्में भी विकसित की गईं.

कैंसर खत्म करने वाली धान की किस्म

भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र और इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय, रायपुर के शोध के बाद यह प्रमाणित हुआ है कि छत्तीसगढ़ में मिलने वाली धान की गठवन, महाराजी और लाईचा प्रजाति में फेफड़े व स्तन कैंसर की कोशिकाओं को खत्म करने के गुण पाए जाते हैं.

फेफड़े के कैंसर में लाइचा धान ने कैंसर कोशिकाओं को पूरी तरह से नष्ट करने में सफलता पाई, वहीं गठवन और महाराजी से कैंसर कोशिकाओं को 70 प्रतिशत तक नष्ट कर दिया.

इसी तरह स्तन कैंसर में भी लाइचा धान ने 65 प्रतिशत तक कैंसर कोशिकाओं को नष्ट किया. महाराजी प्रजाति के चावल से भी 35 प्रतिशत कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने में सफलता मिली. गठवन प्रजाति ने भी स्तन कैंसर की 10 फीसदी कोशिकाओं को नष्ट कर दिया.

राज्य के वैज्ञानिकों ने पिछले 20 सालों के शोध के बाद धान की चार ऐसी प्रजातियों को विकसित करने में सफलता पाई, जिसमें प्रोटीन, जिंक और मल्टी विटामिन हों.

कोरोना काल में वैज्ञानिकों ने जिंको राइस एमएस, छत्तीसगढ़ जिंक राइस वन नाम से धान की एक ऐसी प्रजाति तैयार की, जिससे शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है. चावल की इस प्रजाति से शरीर के लिए ज़रुरी जिंक, प्रोटीन और मल्टी विटामिन्स आसानी से मिल सकते हैं.

धान की किस्में जिस तरह खेत और थाली से गायब होती जा रही हैं, उससे तो ऐसा लगता है कि धान की किस्में केवल संग्रहालय में रह जाएंगी.

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