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विश्व पर्यावरण दिवस विशेष : पेड़ बचाने प्रकृति प्रेमियों ने लगा दी थी अपनी जान की बाजी, जानिए देश के उन 5 बड़े आंदोलनों को जो इतिहास रच गए

विश्व पर्यावरण दिवस 2023. पेड़ को हम राखी बांधते हैं, ये हमारे घर के सदस्य हैं, इसे नहीं काटने देंगे, पेड़ के बदले अगर सिर कटाना पड़े तो मंजूर है… आज से 289 साल पहले राजस्थान के जोधपुर जिले के एक किसान परिवार की सामान्य महिला द्वारा राजा के मंत्री से कहे गये इन शब्दों को राजद्रोह माना गया था. जिसकी सजा एक नहीं कई गांव के लोगों को भुगतनी पड़ी. लेकिन गांव वालों ने पेड़ नहीं काटने दिए और आखिरकार राजाज्ञा वापस ले ली गई. आइए जानते हैं भारत के उस 5 बड़े पर्यावरण आंदोलनों के बारे में, जिसने तात्कालीन हुकुमतों को अपने कदम वापस लेने को मजबूर किया.

बिश्नोई आंदोलन

ये 300 साल पुरानी बात है. राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में सन 1700 के दौरान इलाके में राजा के सैनिक पेड़ काटते थे. क्योंकि नया महल बनवाया जाना था. लेकिन इलाके की अमृता देवी को पेड़ काटना गवारा नहीं था. इसलिए उन्होंने ग्रामीणों को पेड़ बचाने के लिए आंदोलित (Bishnoi Movement) किया. इस आंदोलन में सैनिकों के साथ संघर्ष में बिश्नोई समुदाय के 363 ग्रामीण मारे भी गए. असल में बिश्नोई समुदाय के गुरु महाराज जम्बाजी ने 1485 में इस पंथ की स्थापना के समय पेड़ों और जानवरों की हत्या को नागवार माना था. आखिरकार, जब राजा को इस आंदोलन और मारकाट का पता चला तो उन्होंने माफी मांगी और तबसे बिश्नोई समुदाय के इस इलाके के जंगल को संरक्षित किया गया. ये आंदोलन लोककलाओं में आज तक जिंदा है. अंग्रेजी सरकार और आजादी के बाद बनी भारत सरकार ने जोधपुर महाराज के फैसले को यथावत रखते हुए खेजड़ी के पेड़ को काटने पर प्रतिबंध बरकरार रखा जो आज भी लागू है. साल 1983 में राजस्थान सरकार ने खेजड़ी के वृक्ष को राजवृक्ष घोषित कर दिया.

चिपको आंदोलन

उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल और चमोली में 1973 में यह ऐतिहासिक आंदोलन (chipko movement) शुरू हुआ था. आंदोलन की प्रमुख मांग थी कि जंगल के पेड़ों और संसाधनों का मुनाफा स्थानीय लोगों के हक में होना चाहिए. इस आंदोलन में कई बड़े नेता शामिल रहे. लेकिन सुंदरलाल बहुगुणा, गौरा देवी और सुदेशा देवी की भूमिका महत्वपूर्ण मानी गई. बहुगुणा पेड़ों और जंगलों को लेकर पर्यावरण से जुड़ी जागरूकता फैलाया करते थे. नतीजा ये था कि लोग पेड़ों को गले लगाने लगे थे और पेड़ों पर पवित्र धागे बांधने लगे थे. ताकि उन्हें कटने से बचाया जा सके. इस विशिष्टता ने इस आंदोलन को दुनिया भर में शोहरत दिलाई और 1978 में सरकार ने ग्रामीणों के पक्ष में फैसला किया.

साइलेंट वैली बचाओ अभियान

ये बात है 1973 की, जब केरल के बिजली बोर्ड ने कुंतीपुझा नदी पर एक बड़े डैम की योजना बनाई थी. जिसके चलते लोगों में डर बैठ गया था कि तकरीबन साढ़े आठ वर्ग किलोमीटर के हरे भरे जंगल को इस डैम के लिए कुर्बान कर दिया जाएगा. कवयित्री और एक्टिविस्ट सुगाथा कुमारी और केरल शास्त्र साहित्य परिषद नामक संस्था ने इस जंगल को बचाने के लिए एक अभियान (Silent Valley Campaign) छेड़ा था. जिसमें कई संस्थाएं जुड़ीं. नतीजा ये हुआ कि 1981 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने साइलेंट वैली को संरक्षित करने की घोषणा की और हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट 1983 में वापस लिया गया. फिर1985 में राजीव गांधी ने साइलेंट वैली नेशनल पार्क की शुरूआत की.

जंगल बचाओ आंदोलन

साल 1982 में बिहार के (अब झारखंड में) सिंहभूम जिले में आदिवासियों ने अपने जंगलों को बचाने का आंदोलन (save forest movement) शुरू किया था. क्योंकि कुदरती साल के पेड़ों के जंगल को सरकार ने कीमती सागौन के पेड़ों के जंगल के रूप में तब्दील करने की योजना बनाई थी. सरकार के इस कदम को तब ‘सियासत का लालची खेल’ करार दिया गया था और इसके बाद ये आंदोलन ओडिशा और झारखंड राज्यों में लंबे समय तक जारी रहा. 1978 से 83 तक चले सघन आंदोलन के दौरान 18 आंदोलनकारी मारे गए. सैकड़ों घायल हुए और 15 हजार केस दर्ज किए गए. साल 2006 में यूपीए सरकार ने जब जंगल अधिकार कानून पास किया, तब जाकर आदिवासियों के ऐसे आंदोलनों को राहत मिली.

आप्पिको आंदोलन

साल 1983 में उत्तर कर्नाटक के शिवमोगा जिले में कुदरती जंगलों को बचाने के लिए ये जन आंदोलन हुआ था. इस आंदोलन की प्रेरणा चिपको आंदोलन रहा था और पांडुरंग हेगड़े आप्पिको आंदोलन (appiko movement) के चर्चित नाम बने थे. वन विभाग के ठेकेदार जब पेड़ काटने आते थे तो लोग पेड़ों से चिपक जाते थे और यह जागरूकता फैलाने के लिए जंगलों में पैदल मार्च, स्लाइड शो, लोकनृत्यों, नुक्कड़ नाटकों जैसे कई तरीके अपनाए गए थे. आखिरकार इस आंदोलन की जीत हुई और सरकारी विभाग ने जंगल के हित को प्राथमिकता दी.

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